गन्ने में लगने वाले नाशिकीटों की पहचान एवं हानियॉ
भारत में क्षेत्रफल अधिक होते हुए भी प्रति इकाई उत्पादन अन्य देषों की तुलना में कम है, इसका मुख्य कारण नवीनतम कृषि तकनीकी का कृशकों तक समय से न पहुँचना एवं फसल सुरक्षा पर कृषकों द्वारा कम ध्यान दिया जाना है। अन्य फसलों की अपेक्षा गन्ने में हानि पहुंचाने वाले कीटों की संख्या अधिक पायी जाती है। बुवाई से कटाई तक गन्ने के सभी भागों में मौसम के अनुसार समय–समय पर भिन्न–भिन्न प्रकार के कीटों द्वारा हानि पहुचायी जाती रहती है जैसे बेधक कीट, भूमिगत कीट, पत्ती खाने वाले कीट एवं चूषक कीट ।
भूमिगत कीट
1.दीमक
यह कीट गन्ने के टुकड़ों के आंख एवं सिरे को खाकर नष्ट कर देता है जिससे जमाव प्रभावित होता है। खड़े गन्ने में खाये हुए भाग में मिट्टी भर जाती है। इस कीट का प्रकोप हल्की बलुई मिट्टी तथा असिंचित खेतों में अधिक होता है।
हानि
इस कीट द्वारा 30 से 60 प्रतिषत तक टुकड़ों की आँख नश्ट हो जाती हैं जिससे 33 प्रतिषत तक उपज में कमी तथा 1 से 2 इकाई तक चीनी के परते में कमी हो जाती है।
नियन्त्रण
1. |
प्रभावित खेतों की सिंचाई करते रहने से कीट का प्रभाव कम हो जाता है। |
2. |
बुवाई के समय पैंडो के ऊपर निम्न नाशिकीट में से किसी एक का प्रयोग करके ढक देना चाहिए। |
अ. |
रीजेन्ट, फिप्रोनिल 0.3 प्रतिशत रवा दर 20 कि0ग्रा0 / हे0 । |
ब. |
इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत (Confidor) घोल के 400 मि0ली0 / हे0 को 1875 ली0 पानी मे घोलकर । |
स. |
मेटाराइजियम एनीसोपिली की 5 कि0ग्रा0 / हे0 की मात्रा 1 या 2 कुंतल सड़ी हुई प्रेसमड या गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई के समय पैंडो पर डालकर ढक दें। |
2- व्हाइट ग्रब (गुबरैला)
यह एक बहुभक्षी कीट है जो ज्वार, बाजरा, मक्का, मॅूगफली, आलू, अदरक, उर्द, सब्जियाॅ आदि की खेती के लिए भी बहुत हानिकारक है।
इस कीट की गिडार गन्ने की पौधों की जड़ों व जमीन की सतह के नीचे वाले भाग को माह जुलाई से सितम्बर तक खाती है जिससे प्रभावित पौधा पीला होकर पूरी तरह से सूख जाता है एवं आसानी से जड़ सहित उखड़ जाता है। इस कीट का प्रकोप पेड़ी गन्ना में अधिक पाया जाता है। इस कीट के भीशण प्रकोप से गन्ने की उपज में 80-100 प्रतिषत तक की हानि पायी गयी है।
नियन्त्रण
माह अगस्त एवम् सितम्बर में खेत की तैयारी के समय दिन में 15 से 20 से0मी0 की गहरायी तक खेत की पलट हल से कई बार जुताई करने से सफेद गिडार की विभिन्न अवस्थाओं के ऊपर आ जाने के कारण चिडि़यों द्वारा खाकर नश्ट कर दिया जाता है।
1. |
प्रथम वर्शा के उपरान्त सफेद गिडार के भृंगों को खेत के आस-पास के पेड़ पौधों से अथवा प्रकाष प्रपंचों (लाइट ट्रैप) एवम् फेरोमोन ट्रैप (मेथाक्सी बेन्जीन युक्त) द्वारा एकत्र कर कीटनाषि मिले हुये पानी में डुबोकर नश्ट कर दे। |
2. |
मानसून के 15 दिन पूर्व कीटनाषक क्लोथियानीडीन 50 डब्ल्यू0डी0जी0 का 250 ग्राम 1875 ली0 पानी में घोल बनाकर गन्ने की लाइन को भिगोने के उपरान्त सिचाई करा दें। |
3. |
विवेरिया बैसियाना की 5 कि0ग्रा0/ हे0 मात्रा 1 या 2 कुंतल सड़ी हुई प्रेसमड या गोबर की खाद में मिलाकर जून के प्रथम सप्ताह में लाइनों में डालने के उपरांत सिचाई करा दें। |
गन्ने के प्रमुख बेधक कीट
1-जड़ बेधक
यह कीट गन्ने के जड़ वाले भाग को नुकसान पहुॅंचाता है। इस कीट की सूड़ी अवस्था ही हानि पहुॅंचाती है। इस कीट का प्रकोप अप्रैल से अक्टूबर तक होता है। इसका प्रकोप उत्तर प्रदेष, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेष में पाया जाता है। यह कीट गन्ने के नवजात पौधों एवं गन्नों को नुकसान पहुॅंचाता है। प्रभावित पौधों की गोंफ सूख जाती है तथा खींचने से आसानी से नहीं निकलती है एवं मृतसार से किसी प्रकार की दुर्गन्ध नहीं आती है। नवजात पौधों की सतह पर एक ही छिद्र पाया जाता है। गन्ने की पत्तियों का किनारा ऊपर से नीचे की तरफ पीला होना इस कीट की क्षति की विषेष पहचान है। उ0प्र0 में यह कीट मई के प्रथम पखवारे में दिखाई देता है लेकिन जुलाई-अगस्त के महीनों में इस कीट की संख्या अधिक दिखायी देती है।
हानि
1. |
प्रभावित पौधों में किल्ले कम निकलते हैं। |
2. |
गन्ने की उपज में 10 प्रतिषत की हानि होती है। |
3. |
चीनी परता में 0.3 यूनिट की कमी पायी गयी है। |
4. |
नवजात पौधों में प्रकोप होने पर 52 प्रतिषत प्रभावित पौधों से ब्यांत नहीं बनते हैं। |
5. |
52 प्रतिषत प्रभावित पौधों से ब्यांत नहीं बनते हैं। |
6. |
30 प्रतिषत प्रभावित पौधों से एक ब्यांत बनता है। |
7. |
18 प्रतिषत प्रभावित पौधों से दो ब्यांत बनते हैं। |
नियंत्रण के उपाय
1. |
इस कीट के नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत घोल दर 500 मि0ली0 / हे0 का दो बार (पहला बुवाई के समय, दूसरा मध्य सितंबर में) प्रयोग करना चाहिए। बुवाई के समय 1875 ली0 पानी में घोलकर तथा मध्य सितम्बर में कीटनाषक की उक्त मात्रा को 25 किग्रा मिट्टी में मिलाकर खेत में पानी भरने के उपरान्त गन्ने की पंक्तियों में प्रयोग करना चाहिए। |
2. |
प्रभावित क्षेत्रों में गन्ने की कटाई जमीन के बराबर से करनी चाहिये। |
3. |
ट्राइकोग्रामा काइलोनिस दर 50,000 वयस्क/हे0 का प्रत्यारोपण 15 दिन के अन्तराल पर माह जून के अन्तिम सप्ताह से माह सितम्बर तक करना चाहिये। |
4. |
इसके अतिरिक्त प्रभावित क्षेत्रों में फसल चक्र अपनाना चाहिये। |
2- अंकुर बेधक
कृषकों द्वारा इसे पिहका, कन्सुआ या सलाई आदि नामों से जाना जाता है।सूड़ी मटमैले रंग की तथा पीठ पर पाॅंच बैंगनी रंग की धारियाॅं पायीं जाती हैं। इसका प्रकोप माह अप्रैल से जून तक अधिक तापक्रम की दषा में भीषण होता है। इसकी सूड़ी पौधों के मुलायम तने में बारीक छेद बनाकर अन्दर घुसती है तथा गोंफ को खाती हुई नीचे की तरफ जाती है जिसकी वजह से गोंफ सूख जाती है जिसे मृतसार कहते हैं। मृतसार को आसानी से बाहर खींचा जा सकता है जिसमें सिरके जैसी गन्ध आती है।
हानि
गर्म मौसम में आपतन की उग्रतानुसार 5 से 40 प्रतिषत पौधे नष्ट हो जाते हैं।
नियंत्रण के उपाय
1. |
समुचित सिंचाई का प्रबंध करना तथा हल्की मिट्टी चढ़ाने से सॅूडी का प्रवेष कम हो जाता है।
|
2. |
प्रभावित पौघों को सूॅड़ी/प्यूपा सहित काटकर नश्ट करना चाहिए। |
3. |
थायोमेथाक्सम 25 WSG (एक्तारा) दर 400 ग्रा0/है0 1875 ली0 पानी में घोलकर पेड़ों के ऊपर डालकर ढ़काई करना। |
4. |
रीजेन्ट ;फिप्रोनिल 0.3 प्रतिषत रवा दरद्ध 0.3 जी दर 20.00 कि0ग्रा0/हे0। |
चोटी बेधक
इस कीट की सूड़ी अवस्था हानि पहुॅंचाती है। उत्तर प्रदेष में इस कीट की पूरे वर्ष में 4-5 पीढि़याॅं पायी जाती हैं। इसे किसान कनफर्रा, मथमुइया आदि नामों से जानते हैं। सूड़ी पत्ती की मध्य षिरा से प्रवेष कर गोंफ तक पहुॅंच जाती है तथा वृद्धि स्थान को खाकर नष्ट कर देती है जिससे गन्ने की बढ़वार रुक जाती है। प्रभावित पौधे की गोंफ छोटी तथा कत्थई रंग की हो जाती है। इसे मृतसार कहते हैं जो खींचने पर आसानी से नहीं निकलती है। गन्ने की पत्ती की मध्य षिरा पर लालधारी का निषान तथा गोंफ के किनारे की पत्तियों पर गोल छर्रे जैसा छेद पाया जाता है। इस कीट की तीसरी पीढ़ी से अधिक नुकसान होता है तथा तीसरी एवं चैथी पीढ़ी के आपतन से गन्ने में बन्चीटाॅप का निर्माण हो जाता है।
हानि
1. |
प्रथम एवं द्वितीय पीढ़ी के आपतन से गन्ने के पौधे पूर्ण रूप से सूख जाते हैं।
|
2. |
तृतीय पीढ़ी से प्रभावित पौधों की बढ़वार रुक जाने के कारण उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा पौधे की लम्बाई कम हो जाती है। |
3. |
चोटी बेधक कीट के आपतन से उपज में 20 से 35 प्रतिषत तक तथा चीनी परता में 0.2 से 4.1 यूनिट तक की हानि होती है। |
नियंत्रण के उपाय
1. |
प्रथम एवं द्वितीय पीढ़ी के अण्ड समूहो को मार्च एवम् मई के महीनों में पत्ती सहित तोड़कर 60 मेस के नायलान की जाली में संरक्षित कर खेत के आसपास रख दें जिससे अण्डे से परजीवी निकलकर पुनः खेत मे चली जाय।
|
2. |
प्रथम एवं द्वितीय पीढ़ी से प्रभावित पौधों को सूॅड़ी/प्यूपा सहित पतली खुरपी की सहायता से जमीन की गहरायी से काटकर निकालना एवं नश्ट करना। |
3. |
कोराजन 20 प्रतिषत एस0सी0 का 150 मि0ली0/एकड़ कीटनाषक का 400 ली0 पानी में घोल बनाकर अप्रैल के अन्तिम सप्ताह या मई के प्रथम सप्ताह में नैपसेक स्प्रेयर से गन्ने की लाइन को भिगोने के उपरान्त सिंचाई करना चाहिए। उक्त रसायन के प्रयोग से अंकुरबेधक कीट का भी नियन्त्रण होता है। |
4. |
कार्बोफ्यूरान 3 जी0 33.0 कि0ग्रा0/है0 की दर से जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक तृतीय पीढ़ी के विरूद्ध पर्याप्त नमी की दषा में पौधों की जड़ के समीप प्रयोग करना। |
5. |
अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा स्पीसीज दर 50,000 वयस्क/है0 का 15 दिन के अन्तराल पर कीट के अण्डरोपण के समय अवमुक्त करना। |
6. |
आइसोटिमा जावेन्सिस परजीवी चोटीबेधक कीट की सूड़ी को प्राकृतिक रूप से मध्यम तापक्रम व अधिक आर्द्रता की दषा में नश्ट करता है। |
तनाबेधक
यह कीट उत्तर प्रदेष के तराई क्षेत्र, बिहार, पंजाब एवम् हरियाणा में मुख्य रूप से हानि पहुॅंचाता है। इस कीट की सूड़ी हानि पहुॅंचाती है। इस कीट का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर तक होता है। सूड़ी की पीठ पर 05 बैंगनी रंग की धारियाॅं होती हैं। नवजात पौधों में इसके प्रकोप से मृतसार पाया जाता है जो आसानी से खींचने पर बाहर नहीं निकलता है। प्रभावित पौधों की पोरियों पर छोटे-छोटे गोल छिद्र पाये जाते हैं। पोरी के अन्दर खाये हुये भाग में बुरादे जैसा बीट भरा रहता है तथा ग्रसित भाग लाल हो जाता है। प्रभावित पौधों की पत्तियाॅं पीली हो जाती हैं तथा गन्ने की बढ़वार रुक जाती है।
हानि
इस कीट के आपतन से उपज में 4 से 33 प्रतिषत एवम् चीनी परता में 0.3 से 3.7 यूनिट की कमी पायी गयी।
नियंत्रण के उपाय
1. |
संतुलित उर्वरक का प्रयोग करना, जल निकास की उचित व्यवस्था करना, जलीय प्ररोहों का उन्मूलन करना तथा माह अगस्त एवम् सितम्बर में (बीज गन्ना को छोड़कर) नीचे की सूखी पत्तियों को निकालकर नीचे गिरा देना।
|
2. |
गन्ने को गिरने से बचाने हेतु माह जून-जुलाई में मिटटी चढ़ाना तथा जुलाई-अगस्त में गन्ने की बंधाई करना। |
3. |
माह जून से सितम्बर तक 15 दिनों के अन्तराल पर ट्राइकोग्रामा स्पीसीज दर 50,000 वयस्क/हे0 का प्रत्यारोपण करना। |
4. |
कोटेसिया फ्लेविप्स तना बेधक कीट की सूड़ी का प्राकृतिक परजीवी है। मानसून के बाद आर्द्रता अधिक होने पर इस परजीवी द्वारा प्रकृति में 40-60 प्रतिषत तक तना बेधक की सूडि़यां नष्ट हो जाती हैं। |
गन्ने के प्रमुख चूसक कीट
गन्ना फसल को हानि पहुॅंचाने वाले नाषिकीटों में चूषक कीट का भी विषेष महत्व है। यह कीट गन्ने की पत्तियों तथा तनों से पौधों का रस चूसते हैं जिसके कारण पौधों की पत्तियाॅं पीली पड़ जाती हैं। गन्ना फसल में लगने वाले प्रमुख चूषक कीट निम्नवत् हैंः-
1-काला चिकटा
यह कीट पूरे उत्तर प्रदेष में पाया जाता है परन्तु पष्चिमी जिलों में इसका प्रकोप अधिक देखा गया है। इसका प्रकोप अप्रैल-मई माह में पेड़ी में अधिक रहता है। प्रभावित पौधों की पत्तियाॅं पीली हो जाती हैं तथा उन पर कत्थई रंग के धब्बे पाये जाते हैं। इसके षिषु पत्रकंचुक एवं गोंफ के मध्य मंे मई तक पाये जाते हैं। प्रौढ़ तथा षिषु दोनों पत्तियों का रस चूसते हैं जिससे गन्ने की बढ़वार रुक जाती है तथा उपज व षर्करा में कमी हो जाती है।
नियंत्रण
1. |
प्रभावित क्षेत्रों में पताई तथा ठूॅंठों को गन्ना कटाई के बाद जलाना। |
2. |
ठूॅंठों से निकले किल्लों को अप्रैल के अन्त तक खेत से निकालने तथा कटाई के बाद खेत की सिंचाई करने से इस कीट का आपतन कम होता है। |
3. |
ग्रीष्मकाल में प्रकोप होने पर निम्न में से किसी एक कीटनाषक का छिड़काव 625 ली0 पानी में घोलकर कट नाजिल से करना चाहिये :- |
अ. |
इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत घोल दर 150-200 मि0ली0 / हे0 । |
ब. |
क्वीनॉलफॉस 25 प्रतिशत ई0सी0 दर 800 मि0ली0 / हे0 । |
स. |
डाइक्लोरवास 76 प्रतिशत ई0सी0 दर 250 मि0ली0 / हे0 । |
पायरिला
गन्ना फसल में पायरिला एक प्रमुख चूषक कीट है। इसका प्रकोप उत्तर प्रदेष में 5-6 वर्ष बाद भीषण रूप से आता है। इस कीट का प्रकोप माह अप्रैल से अक्टूबर तक रहता है। इस कीट के निम्फ तथा प्रौढ़ पत्तियों से रस चूसते हैं जिससे पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। यह कीट मल के रूप में एक चिपचिपा मधुरस छोड़ता है जिससे पत्तियों पर काली फफूॅदी लग जाती है जो पत्तियों की भोजन बनाने की प्रक्रिया को बाधित करती है जिससे फसल की बढ़वार रूक जाती है।
हानि
इस कीट के आपतन से उपज में 15-20 प्रतिषत तथा चीनी के परते में 0.2-5.0 यूनिट तक की क्षति हो जाती है। अधिक प्रकोप होने पर यह कीट अन्य फसलों जैसे- ज्वार, बाजरा, मक्का को भी हानि पहुँचाता है।
नियंत्रण
1. |
पायरिला के अण्ड परजीवी जैसे टेट्रास्टिकस पायरिली, काइलोन्यूरस पायरिली एवं ओनसिरटस पैपीलियोनस द्वारा प्रकृति में लगभग 80 प्रतिषत पायरिला की संख्या मानसून के बाद नियन्त्रित हो जाती है। |
2. |
मेटाराइजियम एनीसोपली फफूँदी प्रकृति में पायरिला को नश्ट करती है। मानसून के बाद उक्त फफूँदी के स्पोर का छिड़काव करने पर कम तापक्रम व अधिक आर्द्रता के कारण यह पायरिला की संख्या 94 प्रतिषत तक कम कर देती है। |
3. |
अगर प्रभावित फसल में परजीवी के ककून न दिखाई दे ंतो ऐसी स्थिति में निम्न में से किसी एक कीटनाषक का छिड़काव 625 ली0 पानी में घोल बनाकर करना लाभकारी होता है। |
4. |
डायमेथोएट 30 प्रतिषत ई0सी0 दर 1 ली0/हे0 या प्रोफेनोफॉस 40 प्रतिषत + साइपर 4 प्रतिषत घोल दर 750 मि0ली0/हे0।या क्वीनालफॉस 25 प्रतिशत घोल दर 800 मि0ली0 / हे0 अथवा डाइक्लोरवास 76 प्रतिशत घोल दर 315 मि0ली0 / हे0 । |
5. |
प्रभावित फसल की कटाई के उपरान्त खेत में सूखी पत्तियों को जला देना चाहिये। |
सफेद मक्खी
भारतवर्ष में सफेद मक्खी की तीन प्रजातियाँ एल्यूरोलोवस वैरोडेन्सिस, नियोमास्केलिया वार्गाई और नियोमास्केलिया एन्ड्रोपोगोनिस पायी जाती हैं जिनमें से एन्ड्रोपोगोनिस केवल उत्तर प्रदेष में बाकी दोनों प्रजातियाँ पूरे भारतवर्ष में पायी जाती हैं। इसका प्रकोप पानी भरे हुये तथा नत्रजन की कमी वाले प्रक्षेत्रों पर अधिक होता है। इस कीट के षिषु पत्ती की निचली सतह से रस चूसकर हानि पहुँचाते हैं जिसकी वजह से पत्तियाँ पीली होकर सूख जाती हैं।
हानि
इससे उपज में लगभग 23.4 प्रतिषत तथा षक्कर के परते में 1.21 से 2.80 इकाई तक की कमी आ जाती है। ये कीट गन्ना, ज्वार, बाजरा, मक्का,गेहूँ तथा जौ पर भी पाये जाते हैं।
नियंत्रण
1. |
बावग तथा पेड़ी में प्रचुर मात्रा में नत्रजन का प्रयोग करना। |
2. |
जलप्लावित क्षेत्रों में पानी के निकास की व्यवस्था करना। |
3. |
प्रभावित पत्तियों को खेत से बाहर निकालने से कीट का प्रभाव कम हो जाता है। अगस्त से सितम्बर में प्रकोप होने पर किसी एक कीटनाषक का छिड़काव 1250 ली0 पानी में घोल बनाकर करना चाहियेः- |
a. |
फेनिट्रोथियान 50 प्रतिषत घोल दर 1 ली0/हे0। |
b. |
इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत घोल दर 170 मि0ली0 / हे0 । |
गुलाबी चिकटा या मिलीबग
पूरे विश्व में इस कीट की 30 प्रजातियाँ गन्ने में पाई जाती हैं जिनमें से 06 प्रजातियाँ केवल भारत में पाई जाती हैं। गुलाबी चिकटा प्रजाति भारत में सबसे अधिक मिलती है। मादा कीट गुलाबी रंग की तथा गोल या चपटे आकार की होती है। ये कीट समुदाय में गन्ने की गाँठो पर पाये जाते हैं तथा तने से रस चूसते हैं। इस कीट के अधिक आपतन से गन्ने की बढ़वार रुक जाती है तथा गन्ने की पत्तियाँ पीली होने लगती हैं। कभी-कभी पूरी फसल सूख जाती है। गन्ने के तने पर चिपचिपा मधु स्राव होने से ब्लैक सूटी मोल्ड का प्रभाव हो जाता है। सूखे की दषा में इस कीट का प्रभाव अधिक होता है तथा बरसात के कारण एस्परजीलस पैरासीटीकम नामक फफूँदी के प्रभाव से इसकी संख्या में कमी आती है। जुलाई-अगस्त के महीनों में इसका आपतन अधिक पाया जाता है। देर से पकने वाली प्रजातियों में इस कीट का प्रभाव अधिक होता है।
हानि
इसकी वजह से उपज में 20 प्रतिशत तथा सुक्रोज में 30 प्रतिशत तक की कमी हो जाती है।
नियंत्रण
कल्चरल विधि
1. |
प्रभावित गन्ने के टुकड़ों को नहीं बोना चाहिये। |
2. |
गन्ने के टुकड़ों की लीफ शीथ को बोने से पहले हटा देना चाहिये तथा पानी में 72 घण्टे तक भिगोकर बोना चाहिये। |
3. |
प्रभावित खेत में गन्ने की कटाई जमीन की सतह से करनी चाहिये। |
4. |
प्रभावित क्षेत्रों में बार-बार पेड़ी की फसल नहीं लेनी चाहिये। |
हानि
इमिडाक्लोप्रिड 150 से 200 मि0ली0/हे0 को 625 ली0 पानी मंे घोल बनाकर छिड़काव प्रभावी पाया गया है।
जैविक नियन्त्रण
एनागाइरस सैकरीकोला शिशु एवं वयस्क का परजीवी, एनागाइरस स्वीजाइ अण्ड परजीवी तथा क्रिप्टोलीमस मोनट्राजेराई एवं क्राइसोपा स्पीशीज मिली बग का भक्षी कीट है।
थ्रिप्स
थ्रिप्स पत्ती के इपीडर्मिस के अन्दर अण्डा देता है जिससे निम्फ निकलकर पत्ती का रस चूसते हैं जिसके कारण पत्ती का अग्रभाग मुड़ जाता है। गर्मी का मौसम इनकी जनसंख्या वृद्धि में सहायक होता है। वर्षा के प्रारम्भ होते ही इनकी जनसंख्या में कमी होने लगती है।
नियंत्रण
माह मई-जून में प्रकोप होने पर 625 ली0 पानी में निम्न में से किसी एक कीटनाषक का घोल बनाकर प्रति हे0 की दर से छिड़काव करना चाहिये। |
1. |
एल्सान 50 प्रतिषत घोल 0.50 ली0/हे0। |
2. |
डाईमेथोएट 30 प्रतिषत घोल 1.0 ली0/हे0। |
3. |
नुवाक्रान 36 प्रतिशत घोल दर 0.75 ली0 / हे0 । |
गन्ने की पत्ती कुतरकर हानि पहुंचाने वाले कीट
गन्ना फसल की पत्तियों को कुतरकर हानि पहुॅंचाने वाले कीटों में ग्रासहाॅपर, सैनिक कीट एवं स्लग कैटरपिलर (करन्ट कीट) प्रमुख हैं।
टिड्डा (ग्रॉसहॉपर)
ग्रॉस हॉपर मुख्य रूप से घासकुल पर जीवन निर्वाह करने वाला कीट है जिसे फुदका/टिड्डा भी कहते हैं। यह कीट ज्वार, मक्का, धान आदि फसल के अतिरिक्त गन्ना फसल पर भी भीषण रूप से आक्रमण करता है। गन्ना फसल पर इस कीट की मुख्य रूप से तीन प्रजातियाँ पायीं जाती हैं।
1- हिरोग्लाइफस नाइग्रोरेप्लेट्स
2- हिरोग्लाइफस वेनियान
3- ऑक्सिया विलाक्स
गन्ना फसल में मुख्य रूप से वेनियान प्रजाति का ही प्रकोप अधिकांष क्षेत्रों में पाया जाता है। अक्टूबर-नवम्बर में मादा जमीन के अन्दर मेंड़ों, सिंचाई की नालियों के किनारे, नहर की पटरियों तथा गन्ने के क्लम्प के आसपास ऊॅंचे स्थानों पर एक थैलीनुमा झिल्ली में अण्डे देती हैं। प्रथम वर्षा के पष्चात् जून-जुलाई में इन अण्डों से छोटे-छोटे फुदकने वाले हाॅपर निकलते हैं जो षुरुआत में घास की पत्तियों को खाकर बड़े होते हैं तथा 8-10 सप्ताह मंे प्रौढ़ बन जाते हैं। गन्ना फसल में इस कीट के प्रौढ़ तथा निम्फ दोनों पत्तियों के हरे भाग को खाते हैं। इस कीट का प्रकोप जुलाई से सितम्बर माह तक होता है।
हानि
भीषण प्रकोप की दशा में गन्ने की पत्तियों के बीच की मध्य शिरा ही शेष रह जाती है तथा फसल बाहर से झाड़ीनुमा प्रतीत होती है। पौधों में पत्तियों की कमी से कायिकी प्रभावित होकर बढ़वार रुक जाती है तथा उपज व चीनी परते पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
नियंत्रण
1. |
गर्मी के दिनों में खाली खेत की गहरी जुताई एवम् मेड़ों की ड्रेसिंग करने से इस कीट के अण्डे नश्ट हो जाते हैं। |
2. |
प्रभावित फसल में बायोनीम 50 प्रतिषत घोल दर 1250 मि0ली0/हे0 को 1250 ली0 पानी में घोलकर छिड़काव करना लाभप्रद पाया गया है। |
सैनिक कीट (आर्मी वर्म)
इस कीट की सूड़ी अवस्था गन्ने की पत्तियों को खाकर हानि पहुँचाती है। मादा कीट गन्ने की पत्तियों के पत्रकंचुक में एक समूह में अण्डे देती है। इन अण्ड समूहों से 4-5 दिन बाद छोटी-छोटी सूडियाँ निकलकर शाम के समय सैनिकों की भाँति समूह में गन्ना फसल की पत्तियों को खाती हैं। सूडि़यों के षरीर के मध्य दोनों ओर लम्बाई में चार धारियाँ पायी जाती हैं। दिन के समय सूड़ियाँ जमीन के अन्दर सूखी पत्तियों, पत्तियों के पत्रकंचुकों एवं गोंफ में छिपी रहती हैं। वर्ष में इसकी दो पीढ़ियाँ पाई जाती हैं। पेड़ी फसल में इस कीट का प्रकोप अधिक होता है।
हानि
भीषण प्रकोप की दशा में गन्ने की पत्तियों की केवल मध्य शिरा ही शेष रह जाती है जिसके कारण पौधों की बढ़वार रुक जाती है तथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
नियंत्रण
1. |
प्रोफिनोफॉस 40 प्रतिशत + साइप्रस 4 प्रतिशत घोल दर 750 मि0ली0 / हे0 को 625 ली० पानी में घोलकर छिड़काव करना । |
2. |
प्रभावित खेतों में गन्ना कटाई के पश्चात सूखी पत्तियों को बिछाकर जला देना चाहिये। |
3. |
फौजी कीटों से प्रभावित क्षेत्रों में जमाव के पश्चात गन्ने की लाइनों के बीच में सूखी पत्तियाँ नहीं बिछानी चाहिये। |
स्लग कैटरपिलर
इस कीट का प्रौढ़ हरे रंग का होता है तथा सूडि़यों का रंग गहरा हरा होता है जिस पर नारंगी रंग की तीन प्रमुख धारियॉं पायी जाती हैं। ये देखने में बहुत सुस्त होते हैं परन्तु पत्तियों को तेजी से खाते हैं। शरीर के किसी हिस्से में छू जाने पर शरीर में तेज खुजली एवं करेन्ट जैसा लगता है। इस कीट का प्रकोप जून से नवम्बर तक रहता है। मादा पौढ़, पत्तियों की निचली सतह पर 2–3 कतारों में समूह में अण्डे देती है। अण्डों से 4–6 दिन पश्चात् सूडि़यॉं निकल आती हैं। सूडि़यों का जीवन काल लगभग एक माह का होता है तत्पश्चात् सूडि़यॉं प्यूपा में परिवर्तित हो जाती हैं। प्यूपा से 25–30 दिन में प्रौढ़ निकल आते हैं। वर्ष में इसकी दो पीढि़यॉं पायी जाती हैं। प्रथम पीढ़ी जून से प्रारम्भ होती है तथा दूसरी अगस्त के अन्त से प्रारम्भ होती है। यह कीट नवम्बर से प्यूपा के रूप में भूमि के अन्दर शीत एवं ग्रीष्म ऋतु को व्यतीत करता है। इस कीट की सूडि़यॉं ही पत्तियों को खाती हैं तथा ग्रसित फसल में केवल मध्य शिरा ही शेष बच पाती है।
नियंत्रण
1. |
सूंड़ियों को एकत्र कर नष्ट कर दे। |
2. |
प्रोफिनोफॉस 40 प्रतिशत + साइप्रस 4 प्रतिशत घोल दर 750 मि0ली0 / हे0 को 1250 ली० पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए । |
नाशिकीटों के नियंत्रण हेतु विधियां
यांत्रिक विधि
1. |
चोटीबेधक के प्रथम एवं द्वितीय पीढ़ी के अण्डसमूहों को एकत्रित करना एवं खेत के किनारे रखना। |
2. |
जिन पत्तियों पर सफेद मक्खी के निम्फ/प्यूपा की संख्या अधिक हो उन्हें तोड़कर नष्ट करना। |
3. |
पायरिला कीट के नियंत्रण हेतु इस कीट के अण्डों को एकत्रित करके नष्ट करना। |
4. |
तनाबेधक के नियंत्रण हेतु अगस्त–सितम्बर के महीनों में लूज एवं सूखी पत्तियों को खेत से बाहर करना। |
5. |
मार्च एवं मई के महीनों में अंकुरबेधक एवं चोटीबेधक प्रभावित पौधों को पतली खुरपी से काटकर निकालना एवं नष्ट करना। |
6. |
गुरदासपुर बेधक के नियंत्रण हेतु जुलाई–अगस्त में प्रभावित पौधों को ग्रिगेरियस अवस्था में गन्ने के टाप को काटकर निकालना एवं नष्ट करना। |
7. |
प्रथम वर्षा के उपरान्त सफेद ग्रव विटिल के नियंत्रण हेतु नीम की टहनियों की सहायता से कीट को एकत्रित कर नष्ट करना। |
8. |
मिलीबग से प्रभावित खेत के गन्नो को जमीन की सतह से काटना चाहियें। |
कृषिगत विधि
1. |
दीमक एवं अंकुर बेधक के नियंत्रण हेतु समुचित सिंचाई का प्रबन्ध करना। |
2. |
सैनिक कीट एवं ग्रासहॉपर के नियंत्रण हेतु गन्ना कटाई के पश्चात् सूखी पत्तियों को बिछाकर जलाना। |
3. |
अंकुरबेधक के नियंत्रण हेतु सूखी पत्तियों को 100 कुं0/है0 की दर से दो पंक्तियों के मध्य में बिछाना। |
4. |
पायरिला एवं सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु संतुलित नत्रजन का प्रयोग करना। |
5. |
सफेद गिडार के नियंत्रण हेतु माह अगस्त–सितम्बर में 15 से0मी0 की गहराई पर कई बार जुताई करना। |
6. |
मिलीबग से प्रभावित गन्ने के टुकड़ो को नही बोना चाहिए। |
7. |
प्रभावित ( मिलीबग) क्षेत्रों मे पैड़ी की फसल नही लेनी चाहिए। |
जैविक विधि
1. |
पायरिला के नियंत्रण हेतु इपिरिकेनिया मिलेनोल्यूका एवं टेट्रास्टिकस पायरिली का संरक्षण एवं प्रत्यारोपण करना। |
2. |
परजीवीकरण को बढ़ाने हेतु समुचित सिंचाई का प्रबन्ध करना। |
3. |
बेधकों के नियंत्रण हेतु माह जून से माह अक्टूबर तक 15 दिन के अन्तराल पर ट्राइकोग्रामा स्पी0 50,000 वयस्क/है0 की दर से प्रत्यारोपण का कार्य सायंकाल करना लाभकारी होता है। |
4. |
ट्राइकोकार्ड्स की उपयोगिता को सिद्ध करने एवं लोकप्रिय बनाने हेतु बिसवॉं, अजबापुर, बीसलपुर एवं रोजा आदि चीनी मिल क्षेत्रों में लगभग
2145 है0 क्षेत्रफल में (वर्ष 2004–05 से 2011-12 तक के मध्य) प्रत्यारोपण कराया गया। ये कार्ड जैविक नियंत्रण प्रयोगशाला द्वारा तैयार कर कराया गया। यह कार्य प्रगति पर है।वर्ष 2012-13 से 2015-16 से तक कुल 965 ट्राइकोकार्डस कृषकों को एवं 2210 ट्राइकोकार्डस बभनान, गुलरिया, सम्पूर्णानगर रोजा एवं निगोही चीनी मिल को क्षेत्र के कृषकों को प्रयोग हेतु उपलब्ध कराया गया। इसके अतिरिक्त कीट अनुभाग के बायोपेस्टीसाइड लैब द्वारा वर्ष 2013-14 से 2015-16 तक कुल 787 कि0ग्रा0 बायोपेस्टीसाइड दीमक एवं सफ़ेद गिडार के नियंत्रण हेतु कृषकों को उपलब्ध कराया गया। |
5. |
डाइफा एफिडिवोरा, माइक्रोमस स्पी0 एवं क्राइसोपरला कार्नी का संरक्षण बूली एफिड कीट के नियंत्रण हेतु उपयोगी पाया गया है। |
रासायनिक विधि
क्र0सं0 |
नाशिकीट |
रासायनिक उपचार |
1. |
दीमक
(टरमाइट) |
बुवाई के समय पैड़ों के ऊपर फसल की कटाई के बाद अथवा खड़ी फसल में प्रकोप होने पर गन्ने के समीप नाली बनाकर कीटनाशक का प्रयोग कर ढक देना चाहिये।
अ– इमिडाक्लोप्रिड 200 एस0एल0 (कन्फीडोर 200 एस0एल0) 400 मि0ली0/है0 को 1875 लीटर पानी में घोलकर पैड़ों के ऊपर हजारे द्वारा प्रयोग करना।
ब– क्लोथियानीडीन 50 डब्लू0 डी0 जी0 का 250 ग्राम हे0 1875 लीटर पानी मे घोलकर पैड़ों पर हजारे द्वारा प्रयोग करना।
स- मेटाराइजियम एनीसोपिली की 5 कि0ग्रा0 / हे0 की मात्रा 1 या 2 कुंतल सड़ी हुई प्रेसमड या गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई के समय पैंडो पर डालकर ढक दें।
|
2. |
दीमक
एवं आंकुरबेधक |
बुवाई के समय नालियों में पैड़ों के ऊपर, फसल की कटाई के बाद अथवा खड़ी फसल में प्रकोप होने पर गन्ने के समीप नाली बनाकर किसी एक कीटनाशक का प्रयोग कर ढक देना चाहिये।
अ–
फोरेट 10 प्रतिशत रबा 25 कि0ग्रा0/है0।
ब–रीजेन्ट 0.3 प्रतिशत रबा (फिप्रोनिल 0.3 प्रतिशत रबा) 20.0 कि0ग्रा0/है।
|
कृषिगत विधि
क्र0सं0 |
नाशिकीट |
रासायनिक उपचार |
3. |
आंकुरबेधक
(शूट बोरर) |
अ– ग्रीष्मकाल में फसल पर 15 दिन के अन्तर पर तीन बार मेटासिड 50 प्रतिशत घोल 1.0 ली0 को 625 ली0 पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव।
ब–कोराजॆन 20 एस0सी0 का 375 मिलीहे0 की दर से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर जड़ के पास स्प्रयर से छिड़काव करके 24 घण्टे बाद खेत की सिंचार्इ कराना।
|
4. |
चोटीबेधक
(टाप बोरर) |
अ– जून के अन्तिम या जुलाई के प्रथम सप्ताह में तृतीय पीढ़ी के विरुद्ध अधिकतम् अण्डरोपण की अवधि में 30कि0ग्रा0 कार्बोफ्यूरान 3 जी0 प्रति हैक्टेयर की दर से पौधों के समीप नमी की दशा मं डालना। |
5. |
गन्ना बेधक
(स्टाक बोरर) |
मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत घोल को 2.1 ली0 प्रति है0 की दर से 1250 ली0 पानी में घोलकर दो बार मध्य अगस्त एवं मध्य सितम्बर में छिड़काव करना। |
6. |
काला चिकटा (ब्लैक बग) |
ग्रीष्मकाल में प्रकोप होने पर 625 ली0 पानी में घोलकर किसी एक कीटनाशक का प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना।
अ– क्लोरपायरीफॉस 20 प्रतिशत घोल1.0 ली0/है0।
ब– फेन्थियान 100 प्रतिशत घोल 0.75 ली0/है0।
स– डाईमेथोएट 30 प्रतिशत घोल 0.825 ली0/है0।
द– मेटासिड 50 प्रतिशत घोल 0.6 ली0/है0।
य– डाइक्लोरवास (नुवान) 76 प्रतिशत घोल 0.25 ली0/है0।
|
7. |
थ्रिप्स |
मई–जून माह में प्रकोप होने पर 625 ली0 पानी में किसी एक कीटनाशक का घोल बनाकर छिड़काव करना।
अ– डाईमेथोएट 30 प्रतिशत घोल 1.0 ली0/है0।
ब– इकालक्स 25 प्रतिशत 1.0 ली0/है0।
स– नुवाक्रान 36 पतिशत घोल 0.75 ली0/है0।
द– एल्सान 50 प्रतिशत घोल 0.50 ली0/है0। |
8. |
टिड्डा
(ग्रासहॉपर) |
प्रकोप होने पर जुलाई–अगस्त में किसी एक का 1250 ली0 पानी में घोल बनाकर छिड़काव।
अ– बायोनीम/जवान 1.25 ली0/है0 (नीम प्रोडक्ट)।
ब– फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत धूल 25.0 कि0ग्रा0/है0 की दर से धूसरण। |
रासायनिक विधि
क्र0सं0 |
नाशिकीट |
रासायनिक उपचार |
3. |
आंकुरबेधक
(शूट बोरर) |
कोराजॆन 20 एस0सी0 का 375 मिलीहे0 की दर से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर जड़ के पास स्प्रयर से छिड़काव करके 24 घण्टे बाद खेत की सिंचार्इ कराना।
|
4 |
चोटीबेधक
(टाप बोरर) |
अ– जून के अन्तिम या जुलाई के प्रथम सप्ताह में तृतीय पीढ़ी के विरुद्ध अधिकतम् अण्डरोपण की अवधि में 33कि0ग्रा0 कार्बोफ्यूरान 3 जी0 प्रति हैक्टेयर की दर से पौधों के समीप नमी की दशा मं डालना। |
5. |
गन्ना बेधक
(स्टाक बोरर) |
मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत घोल को 2.1 ली0 प्रति है0 की दर से 1250 ली0 पानी में घोलकर दो बार मध्य अगस्त एवं मध्य सितम्बर में छिड़काव करना। |
6. |
काला चिकटा (ब्लैक बग) |
ग्रीष्मकाल में प्रकोप होने पर 625 ली0 पानी में घोलकर किसी एक कीटनाशक का प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करना।
अ- इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत घोल दर 150-200 मि0ली0 / हे0 ।
ब- क्वीनॉलफॉस 25 प्रतिशत ई0सी0 दर 800 मि0ली0 / हे0 ।
स- डाइक्लोरवास (नुवान) 76 प्रतिशत ई0सी0 दर 250 मि0ली0 / हे0 ।
|
7. |
थ्रिप्स |
मई–जून माह में प्रकोप होने पर 625 ली0 पानी में किसी एक कीटनाशक का घोल बनाकर छिड़काव करना।
अ– डाईमेथोएट 30 प्रतिशत घोल 1.0 ली0/है0।
ब– इकालक्स 25 प्रतिशत 1.0 ली0/है0।
स– नुवाक्रान 36 पतिशत घोल 0.75 ली0/है0।
द– एल्सान 50 प्रतिशत घोल 0.50 ली0/है0। |
8. |
टिड्डा
(ग्रासहॉपर) |
प्रकोप होने पर जुलाई–अगस्त में किसी एक का 1250 ली0 पानी में घोल बनाकर छिड़काव।
अ– बायोनीम/जवान 1.25 ली0/है0 (नीम प्रोडक्ट)।
ब– फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत धूल 25.0 कि0ग्रा0/है0 की दर से धूसरण। |
गन्ना के प्रमुख नाशिकीटों का जैविक नियन्त्रण
गन्ना फसल में नाषिकीटों के आपतन से प्रति वर्ष किसानों को उपज में लगभग 20-25 प्रतिषत तथा चीनी मिल को 10-15 प्रतिषत चीनी के परता में हानि होती है। गन्ने में नाषिकीटों के नियन्त्रण हेतु कृषकों द्वारा विभिन्न प्रकार के नाषि रसायनों का प्रयोग किया जाता है जोकि पर्यावरण हेतु सुरक्षित नहीं होता है। गन्ना फसल में नाषिकीटों के नियन्त्रण हेतु प्रयोगषाला में उत्पादित परजीवी, परभक्षी एवं ब्याधिजनों का प्रयोग करना जैविक नियन्त्रण कहलाता है।
1- बेधक कीटों का जैविक नियन्त्रण
क- ट्राइकोग्रामा स्पी0
गन्ने में बेधकों को नियन्त्रित करने हेतु ट्राइकोग्रामा की दो स्पीसीज ट्राइकोग्रामा काइलोनिस एवं ट्राइकोग्रामा जापोनिकम का प्रयोग देष के विभिन्न भागों में किया जा रहा है। यह परजीवी बेधकों के अण्डे की अवस्था को नश्ट कर देता है जिससे बेधक की पीढ़ी नश्ट हो जाती है तथा परजीवी की पीढ़ी (संतति) अनुकूल वातावरण पाकर बढ़ने लगती है। तामिलनाडु प्रान्त में ट्राइकोग्रामा काइलोनिस के 50, 000 अण्ड परजीवी/हे0/सप्ताह की दर से अवमुक्त करने से बेधकों को नियन्त्रित करने में काफी सफलता मिली। आन्ध्र प्रदेष में ट्राइकोग्रामा काइलोनिस के 50000 परजीवी/एकड़ अवमुक्त करने से अंकुर बेधक कीट का प्रभावी नियन्त्रण हुआ।
ख- आइसोटिमा जावेन्सिस
यह परजीवी चोटी बेधक कीट के सूड़ी अवस्था को प्रकृति में नश्ट करता हैं। उक्त परजीवी को वर्श 1958 में मुजफ्फरनगर से तमिलनाडु में छोड़ा गया। इस परजीवी को तमिलनाडु व कर्नाटक प्रान्त में छोड़ने से चोटी बेधक कीट के सूड़ी पर 81 प्रतिषत परजीविता पाई गई। दक्षिणी भारत में मध्यम तापक्रम व अधिक आर्द्रता होने के कारण इस परजीवी का प्रकृति में सम्बर्धन होता रहता है जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेष में मानसून के पूर्व अधिक तापक्रम व कम आर्द्रता होने के कारण इनके द्वारा सूडियाॅ कम नश्ट हो पाती है जबकि मानसून के समय इनकी संख्या में वृद्धि पायी जाती है।
सर्वेक्षण के दौरान पूर्वी उ0प्र0 में इस परजीवी द्वारा 16 से 20 प्रतिषत सूडियाॅ नश्ट हुई हैं। उक्त परजीवी के सम्वर्धन हेतु किसी उपयुक्त होस्ट के सम्वर्द्धन का कार्य प्रयोगषाला में सम्भव नही होने के कारण बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन नहीं हो पाता है परन्तु प्राकृतिक परजीवी के रूप में इनके द्वारा चोटी बेधक की सूडियाॅ 20 प्रतिषत तक नियंत्रित की जा सकती है।
ग- कोटेषिया फ्लेविप्स
यह तना बेधक कीट का बहुत महत्वपूर्ण परजीवी है। पूर्वान्चल में वर्श 1997 में 10-12 प्रतिषत गुरदासपुर बेधक की सूडियों का परजीवीकरण कोटेषिया फलेविप्स के द्वारा देखा गया। इस परजीवी द्वारा पलासी बेधक कीट का भी नियंत्रण होता है। प्रकृति में इनके द्वारा सूडियों का परजीवीकरण अप्रैल से जून तक कम तथा जुलाई के बाद आर्द्रता के बढ़ने के साथ परजीवीकरण बढ़ता जाता है। यहाॅ तक कि सितम्बर तथा अक्टूबर माह में इस परजीवी द्वारा 40-60 प्रतिषत तक सूडियाॅ प्रकृति में नश्ट हो जाती है।
घ- अंकुर बेधक कीट का ग्रेनुलोसिस वायरस
यह वायरस तमिलनाडु प्रान्त में अंकुर बेधक कीट की सूडी को 2..6 से 14.6 प्रतिषत तक प्रकृति में नश्ट कर देता है। इस वायरस का 106-108 इनक्लूषन वाडीज प्रति मिली0 का छिड़काव गन्ने की बुवाई के 30 दिन बाद से 15 दिन के अन्तराल पर चार बार करने से अंकुर बेधक का नियंत्रण देखा गया।
ड़- स्टरमियाप्सीस इनफरेन्स
यह परजीवी अंकुरबेधक व तनाबेधक कीट के सूॅड़ी का परजीवी अधिक तापक्रम पर जीवित रहता है तथा अंकुर बेधक कीट के नियंत्रित करने हेतु कीटनाषकों के प्रयोग के बावजूद भी इस परजीवी के सक्रियता पर बुरा असर नही पड़ता है। तमिलनाडू में इस परजीवी का प्रयोग अंकुर बेधक कीट के नियंत्रण हेतु किया जा रहा है। इस परजीवी के सम्बर्द्धन का कार्य गुलाबी बेधक कीट के सूड़ी पर प्रयोगषाला में करके अवमुक्त किया जा सकता है।
चूसक कीटों का जैविक नियन्त्रण
पायरिला
क-शिशु व वयस्क परजीवी (इपीरीकेनिया मिलैनोल्यूका)
यह पायरिला के षिषु व वयस्क का प्राकृतिक परजीवी है, इसकी संख्या प्रकृति में मानसून के बाद अधिक पाई जाती है जिससे पायरिला का प्रकोप कम दिखाई देता है क्योंकि जैसे जैसे पायरिला की संख्या बढ़ती है तद्नुसार उनके परजीवी की संख्या में वृद्धि होती रहती है। पूर्वी उ0प्र0 के क्षेत्रों से इन परजीवियों के अण्ड-समूह एवं ककून को आन्ध्रप्रदेष, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, उडीसा, राजस्थान एवं पष्चिम बंगाल प्रान्त में अवमुक्त किया गया जिसके कारण इस समय उक्त परजीवियों की संख्या प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिनके कारण पायरिला का प्रकोप होने के कुछ समय बाद ही परजीवी नियंत्रण कर लेता है। अगर पायरिला की संख्या 5-7 प्रति पत्ती की दर से प्रक्षेत्र में मौजूद हैं तो उनके प्रभावी नियन्त्रण हेतु इपीरीकेनिया मिलेनोल्यूका के 8,000 से 10,000 ककून और 8 से 10 लाख अण्डे/हे0 की दर से प्रयोग करने पर नियंत्रित किया जा सकता है। इपीरीकेनिया मिलेनोल्यूका के 2-3 अण्ड समूहों तथा 5-7 ककून पत्ती के निचले सतह पर स्टेपुल करने से इस परजीवी का विस्तार षीघ्र होता है।
ख- अण्ड-परजीवी
पायरिला के अण्ड परजीवी जैसे टेट्रास्टीकस पायरिली, काइलोन्यूरस पायरिली एवं ओनसिरटस पैपिलिओनस, प्रकृति में विद्यमान हैं जिनसे लगभग 80 प्रतिषत पायरिला की संख्या मानसून के बाद नियन्त्रित हो जाती है।
ग- परभक्षी
प्रकृति में बू्रमस सेचुरेलिस, काक्सीनेला सेप्टेमपक्टेटा एवं काक्सीनेला क्वाहीपक्टाटा नामक परभक्षी प्रकृति में मौजूद रहते हैं जो पायरिला कीट को नियन्त्रित करते है।
वर्ष 2005 में पायरिला कीट का प्रकोप पूर्वी एवं पष्चिमी उ0प्र0 के विभिन्न भागों में महामारी के रूप में देखा गया। पूर्वी उ0प्र0 के अन्तर्गत विभिन्न जिलों में बोयी गयी गन्ने की फसल (लगभग 207714 हे0 क्षेत्रफल) पर उक्त कीट के षिषु एवं वयस्क के परजीवी के घनत्व का सर्वेक्षण मार्च से सितम्बर, 2005 तक किया गया। मार्च माह में पायरिला कीट के षिषुओं का औसतन 22.10 प्रतिषत तथा वयस्क का 12..46 प्रतिषत इपिरिकेनिया मिलैनोल्यूका द्वारा परजीवीकरण पाया गया। अप्रैल माह में उक्त परजीवी का परजीवीकरण बढ़ता रहा तथा तत्पष्चात् जून माह में परजीवीकरण में गिरावट आ गयी जोकि 1.25 प्रतिषत वयस्क की संख्या के आधार पर हो पाया। उक्त परजीवीकरण में गिरावट मई एवं जून माह में तापक्रम के बढ़ने (29.32-30.22) तथा आर्द्रता के घटने (64.19-67.73 प्रतिषत) से रही। जून के अन्तिम सप्ताह में वर्षा के कारण षिषु एवं वयस्क का परजीवीकरण जुलाई माह में क्रमषः 35 प्रतिषत तथा 15 प्रतिषत पाया गया।
उक्त परजीवीकरण में वृद्धि, अधिक वर्षा (470.4 मि0मी0 21 दिन में) तथा वायुमण्डल में बढ़ती आर्द्रता व तापमान में गिरावट के कारण होती है। उक्त परजीवीकरण बढ़कर क्रमषः 60.50 प्रतिषत षिषु एवं 20.50 प्रतिषत वयस्क अगस्त में पाया गया। अन्त में सितम्बर माह में वयस्कों का परजीवीकरण 85-100 प्रतिषत तक देखा गया जिससे पायरिला कीट का नियंत्रण सितम्बर माह के मध्य तक संभव हो सका तथा प्रदेष में कीटनाषक का पर्णीय छिड़काव प्रतिबन्धित कर रु0 8,26,53,555.00 की बचत की गयी साथ ही वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखा गया।
घ- मेटाराइजियम एनी सोफिली
यह फफूदी पायरिला के षरीर पर प्रभाव डालता है जिससे प्रकृति में पायरिला नश्ट हो जाता है। मानसून के बाद उक्त फफूदी के स्पोर का छिड़काव करने पर कम तापक्रम व अधिक आर्द्रता के कारण यह पायरिला की संख्या 94 प्रतिषत तक कम कर देती है। उक्त फफूदी का घोल बनाकर पर्णीय छिड़काव करके पायरिला का नियंत्रण किया जाता है।
शल्क कीट
1. |
एडीलेनसीरटस म्यूराई नामक परजीवी सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। |
2. |
काइलोकोरस नाइग्राईट्स व फेरोसिमनस हानीर्, इन्डीजीनस परभक्षी है। काइलोकोरस नाइग्राईट्स पूरे जीवन काल में लगभग 4500 स्केल कीट का भक्षण कर लेता है। |
3. |
काइलोकोरस कैकटाई एवं स्टाई कोलोटिस मेडागासा प्रमुख विदेषी परभक्षी है जो आन्ध्र प्रदेष में शल्क कीट के नियंत्रण में अच्छे सिद्ध हुये हैं। |
सफेद मक्खी
1. एजोटस डेलहेन्सिस तथा एमीटस एल्यूरोलोबी ये दोनों कृमि कोष के परजीवी हैं।
गुलाबी चिकटा या मिलीबग
1. |
एनागाइरस सैकरी कोला- यह शिशु एवं वयस्क का परजीवी है। |
2. |
एनागाइरस स्वीजीई - यह दक्षिण भारत में पाया जाता है तथा अण्डे का परजीवी है। |
3. |
क्रिप्टोलीमस मोनट्रोजेराई- यह भक्षी कीट है। |
4. |
क्राइसोपा स्पी0- यह भक्षी कीट है। |
जैविक कीट नियन्त्रण की उपयोगिता
1. |
जैविक विधि से कीटों का नियन्त्रण करने से वातावरण को प्रदूशित होने से बचाया जा सकता है। |
2. |
कीटनाशकों की भांति परजीवी एवं परभक्षी का प्रयोग बार-बार नहीं करना पड़ता है क्योंकि प्रकृति के अनुकूल वातावरण में इनकी गुणात्मक वृद्धि स्वतः होती रहती है जिससे कीटों का नियन्त्रण प्रकृति में होता रहता है। |
3. |
इनका प्रयोग कीटनाषकों की तुलना में आसान होता है। |
4. |
इनके उत्पादन में लागत कम आती है जबकि कीटनाशक के ऊपर खर्च ज्यादा आता है। |
5. |
गन्ने की फसल में कीटनाशकों का प्रयोग बहुत कठिन होता है जबकि परजीवी कार्ड लगाने में कोई परेशानी नहीं होती है।
इस तरह से गन्ने की फसल में लगने वाले विभिन्न कीटों को जैविक नियन्त्रण तकनीक को अपनाकर फसल सुरक्षा कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। |
सारिणीः भारतवर्ष में गन्ने के विभिन्न नाशिकीटों का प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा परजीवीकरण
क्र0 सं0
|
कीट का नाम
|
परजीव/परभक्षी एवं ब्याधिजन
|
परजीविता प्रतिशत
|
1.
|
काइलोइन्फसकेटलस
|
ट्राइकोग्रामा
टेलेनोमस
कोटेसिया फ्लेविप्स
स्टुरमिआप्सिस इन्फरेन्स
स्टेनोबे्रकान डी सी
अण्ड परभक्षी
|
4-5
15-22
4-14
6-5-22-2
5-7
6-8
|
2.
|
काइलो आरिसीलियस
|
कोटेशियाफ्लेविपस
कैम्पाइलोन्यूरस म्यूटेटर
एस0 इन्फरेन्स
|
10-4
60-78
20-50
|
3.
|
का0सैक्रीपेगस इन्डिकस
|
ट्राइकोग्रामा
टेलिनोमस
को0फलेविपस
रैकोनोटस
अण्डपरभक्षी
ग्रैनलोसिस वाइरस
|
2.7-8.5
15-90
15-90
4-14
25
9.4-22.2
|
4.
|
सरपोफेगा इक्सरप्टेलिस
|
ट्राइकोग्रामा
टेलिनोमस
को0फलेविपस
इलेसमस जेहेन्ट राई
रैकोनोटस सरपोफिगी
आइसोटीमा जावेन्सिस
|
4-5
5.8-5.5
4-14
5-15
7-12.2
5-40
|
जैविक नियंत्रण हेतु प्रयोगषाला, उपकरण एवम् परजीवी उत्पादन तकनीकी
भारत में लगभग 26 ट्राइकोग्रामा प्रजातियों की खोज की गयी है जिसमें से ट्राइकोग्रामा काइलोनिस, ट्राइकोग्रामा जापोनिकम एवं ट्राइकोग्रामा एकेमी विस्तृत रूप से फैली हैं। विदेशों में ट्राइकोग्रामेटिड्स के गुणन उत्पादन के लिये आटे की सूड़ी सिटोट्रोगा सेरीएल्ला को परपोषी कीट के रूप में प्रयोग करते हैं। यद्यपि भारत में धान के कीट कोरसायरा सिफैलोनिका को प्रयोगषाला में परपोषी कीट के रूप में प्रयोग किया जाता है। कोरसायरा सिफैलोनिका एवं ट्राइकोग्रामा के उत्पादन हेतु प्रयोगषाला एवं विभिन्न उपकरणों/सामग्रियों की आवष्यकता होती है जो निम्नानुसार हैः-
कोरसायरा सिफैलोनिका के उत्पादन हेतुः-
1- बिल्डिंग (चार कमरों वाली, जालीदार खिड़की एवं दरवाजे सहित)। खिड़कियाँ उत्तर व दक्षिण दिशा में होनी चाहिये।
2- कार्य करने के लिये मेजें।
3- लोहे की छिद्रवाली कोणीय रैक (2.4 मी0 ग 0.9 मी0 ग 0.45 मी0, 05 खानों वाली)।
4- कोरसायरा पालने वाला बॉक्स (43 ग 23 ग 13 से0मी0)।
5- अण्डा रोपण ड्रम।
6- ट्रे।
7- एल्मूनियम के कप।
8- कैंची एवं ब्रुष।
9- अल्ट्रावायलेट चैम्बर।
10- हॉट एअर ओवन एवम् ट्रे ड्रायर।
11- रेफ्रिजेरेटर।
12- वातानुकूलक।
13- वी0ओ0डी0 इन्क्यूवेटर।
14- सीलिंग फेन।
15- बिजली एवं पानी की सुचारु रूप से सुविधा।
16- कूलर।
17- जनरेटर (25 के0वी0ए0)।
18- एग्जास्ट फैन।
19- हवा खींचने वाला पम्प।
20- मापक सिलेण्डर।
21- काँच/प्लास्टिक ट्यूब।
22- रुई।
23- शहद।
24- फार्मलीन।
25- प्लास्टिक टब एवं ड्रम।
26- दला हुआ ज्वार/बाजरा/मक्का।
27- काला पापलीन कपड़ा
ट्राइकोग्रामा उत्पादन हेतु
1. |
कार्य करने हेतु मेजें। |
2. |
फ्लूओरेसेन्ट ट्यूबलाइट (40 वाट)। |
3. |
कैंची और ब्रुश। |
4. |
कोरसायरा अण्डे (फ्रैश)। |
5. |
चार्ट पेपर। |
6. |
गोंद (एकेसिया)। |
7. |
काँच ट्यूब। |
शिपमेन्ट
1. |
चाकू/कैंचियाँ । |
2. |
कागज के गत्ते का डिब्बा। |
3. |
थर्माकोल की शीट । |
4. |
बादामी कागज की शीट । |
5. |
गोंद। |
6. |
प्रेषण के लिये चिप्पियाँ। |
परजीवी उत्पादन
कोरसायरा सिफैलोनिका की उत्पादन तकनीकी
भारतवर्ष में गन्ना बेधकों की रोकथाम हेतु अण्ड परजीवी ट्राइकोग्रामा प्रजाति का प्रयोग किया जा रहा है। इस प्रजाति का उत्पादन प्रयोगशाला में कोरसायरा सिफैलोनिका नामक कीट के अण्डे से किया जाता है। कोरसायरा सिफैलोनिका भण्डारित अनाजों का हानिकारक कीट है। मक्का तथा ज्वार पर इसका उत्पादन अन्य अनाजों की अपेक्षा अच्छा पाया गया।
जीवनचक्र
वयस्क कीट मटमैले भूरे रंग का होता है। नर तथा मादा कीट लगभग बराबर मात्रा में पाये जाते हैं। वयस्क मादा एक दिन में लगभग 24-25 अण्डे की दर से चार दिन तक अण्डे देती है। अण्डे से सूंडी 24 घण्टे के बाद निकलना प्रारम्भ हो जाती है।सूंडी अवस्था 27 से 32 दिन की होती है। प्यूपा काल 10 से 13 दिन का होता है। प्रयोगषाला में इसका कल्चर पूरे वर्ष भर चलाया जाता है। प्रयोगशाला का तापमान 27 डिग्री से0ग्रेर्0 ं 02 डिग्री से0ग्रे0 तक रहना चाहिये।
उत्पादन विधि
लकड़ी के बने (43 ग 23 ग 13 से0मी0) जालीदार बॉक्स में 03 (तीन) कि0ग्रा0 मक्का/बाजरा की दलिया के साथ एक मि0ली0 कोरसायरा सेफैलोनिका का अण्डा मिला देते हैं। अण्डे से सूंडी निकलकर दानों (मक्का/बाजरा) को खाना प्रारम्भ कर देती हैं। 45 दिन के बाद कीट के वयस्क निकलना प्रारम्भ हो जाते हैं जो लगभग 75 दिन तक निकलते हैं। दानों को बॉक्स में रखने से पहले 100 डिग्री से0ग्रे0 तापक्रम पर 30 मिनट तक ओवन में उपचारित कर लिया जाता है ताकि दाने के अन्दर जो भी अन्य कीट उपस्थित हों नष्ट हो जायें। इसके अतिरिक्त निम्न सावधानियाँ व तरीके अपनाने चाहिये:-
1- प्रयोग में लाया गया मक्का/बाजरा कीटनाषक दवा से मुक्त होना चाहिये। इसके परीक्षण के लिये 100 ग्राम मक्का के दलिया में लगभग 20 प्रथम अथवा द्वितीय इन्सटार कोरसायरा लार्वा को दो से तीन दिन तक खाने के लिये डाल देना चाहिये। लार्वा को जिन्दा अथवा मरने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकालना चाहिये कि प्रयोग में लाया गया दाना कल्चर हेतु उपयुक्त है या नहीं है।
2- प्रयोग में लाया जाने वाला दाना मिल में तीन या चार टुकड़ों में ही दला होना चाहिये।
3- मक्का दाना को 100 डिग्री से0ग्रे0 तापक्रम पर 30 मिनट तक उपचारित करने के बाद 0.1: फार्मलीन के घोल से उपचारित कर देना चाहिये ताकि उपचारित दाना में 15 से 16: तक की नमी आ जाये तथा इसे फफूँदी इत्यादि से बचाया जा सके। इसके उपरान्त मक्का दाना को हवा में सुखा लेना चाहिये।
4- वयस्क कीट 45 दिन बाद निकलना प्रारम्भ हो जाता है जो लगातार दो महीने तक निकलता रहता है। प्रतिदिन 10 से 75 वयस्क कीट प्रति बॉक्स की दर से निकलते हैं। सबसे अधिक वयस्क कीट 65 वें दिन के बीच में निकलते हैं।
5- प्रतिदिन वयस्क कीट को एकत्रित करके विषेष तरीके से अण्डे देने वाले बाॅक्स में डालना चाहिये।
6- अण्डे वाले बॉक्स से प्रतिदिन अण्डा एकत्रित करके बारीक लोहे की जालीदार छन्नी से साफ करना चाहिये और एक सफेद मोटे कागज पर अण्डे को ढाल बनाकर गिराना चाहिये जिससे अण्डे से लगी हुई गन्दगी एवं वयस्क कीट के टांग तथा स्केल अलग हो जांये।
7- प्रारम्भ में कोरसायरा कल्चर बनाने के बाद केज को 30 दिन तक बन्द करके रख देना चाहिए। इस प्रकार से 40 से 80 दिन तथा 120 दिन पर आवष्यकतानुसार केज बनाकर रखना चाहिए ताकि पूरे वर्ष कल्चर चलता रहे।
8- कल्चर रूम के अन्दर तथा बाहर सफाई का विषेष ध्यान रखना चाहिए। पुराने केजों को वयस्क निकालना बन्द होने के बाद तुरन्त साफ कर देना चाहिए तथा अवशेष को जला दें या लैब से दूर कहीं गड्ढे में डालकर दबा दें ताकि कोरसायरा कीट के लार्वा का परजीवी ब्रेकान कीट से कल्चर को बचाया जा सके।
9- यदि ब्रेकान कीट का प्रकोप कल्चर में दिखाई दे तो तत्काल किसी कीटनाषक का छिड़काव कमरे में तथा कमरे के बाहर कम सान्द्रता पर कर देना चाहिए।
10-ब्रेकान कीट को लाइटट्रैप द्वारा भी नष्ट किया जा सकता है।
ट्राइकोग्रामा का उत्पादन
1. |
कोरसायरा के अण्डों को यू0वी0 किरण (15 वाट लैम्प) से 45 मिनट तक उपचारित करते हैं जिससे कोरसायरा सिफैलोनिका के लार्वा न निकलने पायें। |
2. |
साफ सुथरे अण्डों को 12 ग 2 से0मी0 के कार्ड पर गोंद लगाकर बिखेर देते हैं जिस पर अण्डे चिपक जायेंगे। कार्ड के दोनों तरफ 01 से0मी0 खाली जगह छोड़ देना चाहिये। |
3. |
एक कार्ड पर लगभग 20,000 अण्डों का बिखराव हो जाता है। |
4. |
ऐसे कार्ड जिन पर अण्डे चिपका दिये गये हों, को काँच के ऐसे बेलनाकार ट्यूब में रखते हैं जिसमें आसानी से रखे जा सके। |
5. |
इस बेलनाकर ट्यूब में ट्राइकोग्रामा से कार्ड को परजीवीकृत करने के लिए 6:1 के अनुपात में कार्ड को लगाते हैं। |
6. |
इस प्रकार परजीवीकरण हेतु कार्डों को ट्यूब में 24 से 48 घण्टे के लिये छोड़ दिया जाता है तथा ट्यूब को काले कपड़े एवं रुई से बने कार्क से बन्द कर देते हैं। |
भण्डारण
1. |
परजीवीकृत कार्ड 3-4 दिन में काले पड़ जाते हैं जिसे भण्डारण के लिये फ्रिज में रख देते हैं। |
2. |
फ्रिज में ट्राइकोकार्ड का भण्डारण 15 से 20 दिन तक बिना किसी सार्थक नुकसान के किया जा सकता है। |
3. |
प्रयोगषाला का तापमान 27 डिग्री से0ग्रे0 से 02 डिग्री से0ग्रे0 तक रहना चाहिये। |
प्रत्यारोपण
1. |
गन्ने की फसल में ट्राइकोकार्ड के प्रत्यारोपण हेतु फ्रिज में रखे हुए कार्ड को 24 घण्टे पहले फ्रिज से निकालकर कमरे के तापमान पर रख देते हैं। |
2. |
प्रत्यारोपण की सुविधा हेतु कार्ड के छोटे-छोटे टुकड़े करके गन्ना पौधों की पत्तियों में प्रत्यारोपित कर देते हैं। |
3. |
प्रत्यारोपण सायं काल के समय करना चाहिए। |
4. |
50,000 ट्राइकोग्रामा के अण्डे/प्रौढ़ 15 दिन के अन्तराल पर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रत्यारोपित करना चाहिए। |
5. |
प्रत्यारोपण के एक सप्ताह पहले तथा एक सप्ताह बाद तक किसी भी कीटनाषक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
ट्राइकोग्रामा परजीवी के प्रयोग से निम्न लाभ होता हैः- |
अ. |
ट्राइकोग्रामा परजीवी के प्रयोग से वातावरण में किसी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता है जबकि नाशिकीटों के प्रयोग से वातावरण प्रदूषित होता है। |
ब. |
ट्राइको कार्ड कीटनाषकों की अपेक्षा सस्ता एवं इसका प्रत्यारोपण आसान है। |
स. |
ट्राइको कार्ड का प्रयोग गन्ने के अतिरिक्त अन्य फसलों में भी बेधकों के विरुद्ध कर सकते हैं जैसे-धान का तना बेधक, टमाटर फल छेदक, कपास, बैंगन, भिण्डी, नीबू एवं सेव की सूंडी । |
द. |
बार-बार कीटनाषकों का प्रयोग करने से नाषिकीटों में प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न हो जाती है। |
य. |
ट्राइकोग्रामा अण्डपरजीवी होने के कारण क्षति से पूर्व ही कीट को नियंत्रित कर लेता है। |
11. |
प्रत्यारोपण सायं काल के समय करना चाहिए। |